Farmers Protest:अभिव्यक्ति की आजादी, बनाम अमन-चैन से जीने का आमजन का अधिकार’
Farmers Protest: 15 अगस्त 1947 की आधी रात को संविधान सभा के सदस्य भारत की आज़ादी का गवाह बनने के लिए एकत्र हुए।

इसके बाद, 1950 में संविधान सभा ने भारत के संविधान को अपनाया। सवाल आता है कि नई संवैधानिक व्यवस्था ने आजाद देश के आजाद नागरिकों को विरोध करने का अधिकार कैसे प्रदान किया?

संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी नागरिक स्वतंत्रताओं के वो लाभ संरक्षित किए, जिन्हें अंग्रेज शासकों ने मान्यता नहीं दी और संरक्षित नहीं किया था। संविधान निर्माताओं ने स्वीकार किया कि भारत के राजनीतिक जीवन में शांतिपूर्ण विरोध के माध्यम से शिकायतें व्यक्त करने की परंपरा है।
‘लोकतंत्र’, लोकप्रिय जनमत द्वारा संचालित सरकार होती है। इसलिए एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लोगों के लिए जनमत तैयार करने के मार्ग-संसाधान सुरक्षित होने चाहिए। इस प्रकार, शांतिपूर्वक विरोध करने के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करना नए भारत के लिए आवश्यक था।

इसलिए संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताऔर अनुच्छेद 19(1)(बी) के तहत बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार भारत के संविधान की आधारशिला हैं।

इसके अलावा, विशेष रूप से अनुच्छेद 19(1)(सी) और अनुच्छेद 19(1)(डी) क्रमशः एक संघ या संघ बनाने और संपूर्ण भारत में स्वतंत्र रूप से आवागमन का अधिकार देते हैं। इन अनुच्छेदों ने भारतीय नागरिकों के लिए विरोध करने का विस्तृत अधिकार दिया है। यानी भारत की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रहने वाला कोई भी नागरिक या नागरिक या नागरिकों के समूह राष्ट्रीय राजधानी पहुंच कर विरोध प्रदर्शन कर सकता है।

भारत में विरोध प्रदर्शनों में मुख्य रूप से धरना, प्रदर्शन, हड़ताल और बंद शामिल हैं। यदि अहिंसक है, तो इन रूपों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा और संघ और भारत के पूरे क्षेत्र में एक स्वतंत्र आंदोलन की अभिव्यक्ति के रूप में माना जाता है।

सबसे शुरुआती मामलों में से एक, जहां सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शन के अधिकार को, विरोध के अधिकार का एक रूप, अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 19(1)(बी) के तहत गारंटीकृत स्वतंत्रता के रूप में मान्यता दी, कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य था ।इस मामले में 22.02.1962 सर्वोच्च न्यायालय के सात जजों की पीठ जिसमें जस्टिस गजेंद्र गडकर, जस्टिस पीवी सरकार, जस्टिस एके वांचू, जस्टिस केएन गुप्ता, जस्टिस केसी दास, जस्टिस अय्यंगर और जस्टिस एन राजगोपाला शामिल थे- ने कहा: “…एक प्रदर्शन किसी व्यक्ति या समूह की भावनाओं या संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यह अपने विचारों को दूसरों तक (सरकार तक) पहुंचाने का इरादा है। इसलिए वास्तव में प्रदर्शनकारियों की क्रिया भाषण या अभिव्यक्ति का एक रूप है…।”

तदनुसार, सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित नियम के उस हिस्से को रद्द कर दिया जो ‘किसी भी प्रकार के प्रदर्शन’ को प्रतिबंधित करता था क्योंकि यह अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 19(1)(बी) के तहत गारंटीकृत अपीलकर्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन करता था।

हालाँकि, बॉम्बे पुलिस अधिनियम (1951) की धारा 33(1) के तहत बनाए गए नियम (7) को हिम्मत लाल शाह बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में चुनौती मिली। अपीलकर्ता ने दावा किया कि उक्त नियमों का उपयोग करते हुए, पुलिस ने सार्वजनिक बैठक आयोजित करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह अनुच्छेद 19(1)(ए) और 19(1)(बी) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। शीर्ष अदालत ने पाया कि नियम (7) ने अनुच्छेद 19(1)(बी) पर अनुचित प्रतिबंध लगाया और इसे उसी का उल्लंघन माना।

“रैली, बैठक या सभा की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य तत्व है। इस अवधारणा के मूल में नागरिकों को अपने विचारों और समस्याओं – धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक – पर चर्चा के लिए दूसरों से आमने-सामने मिलने का अधिकार निहित है। सार्वजनिक बहस और चर्चा मौखिक और पर्चे छाप कर रेडियो, टेलिवीजन पर बहस के दौरान अपने विचार रखने और डिजिटल मीडिया के माध्यम से अपने विचार-मांग और सुझाव आम जन के बीच रखने और सरकार पहुंचाने का अधिकार है। लोकतांत्रिक राजनीति में मूल धारणा यह है कि सरकार शासितों (मतदाताओं) की सहमति पर आधारित होगी। लेकिन शासितों (मतदाताओं) की सहमति का तात्पर्य न केवल यह है कि सहमति मुफ़्त होगी बल्कि यह भी कि यह पर्याप्त जानकारी और चर्चा पर आधारित होगी…।”

भारत में विरोध के अधिकार को संवैधानिक न्यायालयों ने धीरे-धीरे इसे मौलिक अधिकार के रूप में ठोस रूप दिया। उदाहरण के लिए, रामलीला मैदान की घटना में, न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार ने मौलिक अधिकार के रूप में विरोध के अधिकार के विचार को प्रतिध्वनित करते हुए कहा। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धरना और शांतिपूर्ण आंदोलन आयोजित करके इकट्ठा होने और प्रदर्शन करने का अधिकार लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियादी विशेषताएं हैं। हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश के लोगों को सरकार के फैसलों और कार्यों के खिलाफ आवाज उठाने या सामाजिक या राष्ट्रीय महत्व के किसी भी विषय पर सरकार के कार्यों पर नाराजगी व्यक्त करने का अधिकार है।

इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि सरकार को ऐसे अधिकारों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इसलिए, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को पूर्ण अर्थों में बढ़ावा देना और सहायता करना राज्य का एक अति महत्वपूर्ण कर्तव्य है। न कि उचित प्रतिबंधों के नाम पर प्रशासनिक और विधायी शक्तियों के दुरुपयोग से अधिकारों का हनन करना।

सामाजिक-राजनीतिक संगठनों ने भारत में कई व्यापक विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ, मुट्ठी भर स्थानीय ग्रामीणों का एक संगठन, चिपको आंदोलन की आत्मा और शरीर था।

इसके अलावा अनुच्छेद 19(1)(डी) भारत के नागरिकों को संपूर्ण भारत में स्वतंत्र रूप से आवागमन के अधिकार की गारंटी देता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 19(1)(डी), शांतिपूर्ण मार्च और जुलूस निकालने के अधिकार प्रदान करती है। मौजूदा प्रकरण यानी पंजाब या अन्य प्रदेशों के किसानों को दिल्ली आकर प्रदर्शन करने, मार्च निकालने और रैली निकालने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 19(1)(डी) से मिला है। उनके अधिकार को कोई भी सरकार बैरिकेड लगाकर या बाधाएं खड़ी कर रोकना संविधान का उल्लंघन है।

…लेकिन संविधान में शांतिपूर्वक मार्च निकालने, जुलूस निकालने और अस्थाई रूप से प्रदर्शन करने का अधिकार देता है। संविधान कहता है कि, मार्च, जलसा जुलूस या रैली से किसी स्थानीय निवासी या राहगीरों को असुविधा नहीं होनी चाहिए। ऐसे प्रदर्शनों में किसी तरह के लाठी-डंडे या अस्त्र-शस्त्र लेकर चलने का अधिकार नहीं। मार्च, जलसा जुलूस, रैली या प्रदर्शन में अपशब्द, प्रदर्शन की आड़ में दंगे फैलाने या राष्ट्र के खिलाफ संघर्ष शुरू करने की साजिश नहीं होनी चाहिए।

अनीत ठाकुर बनाम स्टेट ऑफ जम्मू-कश्मीर 2012 मामले में जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘अनुच्छेद 19(1)(डी) के तहत दिया गया स्वतंत्र रूप से घूमने का अधिकार फिर से सुनिश्चित करता है कि याचिकाकर्ता शांतिपूर्ण मार्च निकाल सकें। लेकिन मार्च निकालने वाले अहिंसक और निशस्त्र ही होंगे।

भारत में किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन का अधिकार अनुच्छेद 21 द्वारा भी संरक्षित किया गया है। जब अनुच्छेद 21 को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के साथ पढ़ा जाता है तो वो मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हैं और संरक्षण प्रदान करते हैं।

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को इतनी सुंदरता से गूंथा गया कि यदि कोई एक तत्व कहीं कमजोर रह गया है तो उसको संविधान के किसी अन्य अनुच्छेद से सुदृढ़ कर दिया गया है। जैसे- अनुच्छेद 21 के साथ, अनुच्छेद 38(1) की व्याख्या विरोध प्रदर्शन के मौलिक अधिकार को प्रभावी बनाने के रूप करती है। अनुच्छेद 38(1) एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिए नागरिकों की सहायता करने के राज्य के दायित्व का सुझाव देता है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा देती हो।

ऐसी सामाजिक व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन के अधिकार कोअनिवार्य रूप से संवैधानिक मान्यता प्राप्त है, जो राष्ट्रीय जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा भी है। इस प्रकार, जब अनुच्छेद 38(1) को अनुच्छेद 21 की विस्तृत व्याख्या द्वारा प्रभावी बनाया जाता है, तो यह हमें विरोध प्रदर्शन के अधिकार को संवैधानिक मान्यता की ओर ले जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 38 ने विरोध प्रदर्शन का मौलिक अधिकार तो दिया है लेकिन यह भी देखना जरूरी है कि इनका अधिकारों का दुरुपयोग न हो और अगर कहीं दुरुपयोग हो रहा है तो उसका निराकरण क्या है? क्यों कि कोई अभिव्यक्ति या अभिभाषण की स्वतंत्रता, विरोध प्रदर्शन की स्वतंत्रता, जलसा-जुलूस और मार्च निकालने की स्वतंत्रता, तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक कि कोई पूर्ण उचित प्रतिबंध या सीमा लागू न हो।

अनुच्छेद 19 का दुरुपयोग, विरोध परंपरा पर काला धब्बा
विभिन्न संवैधानिक प्रावधान और संवैधानिक सिद्धांत सरकार को यह सुनिश्चित करने की शक्तियां प्रदान करते हैं कि सार्वजनिक सभाएं, विरोध प्रदर्शन, धरने या मार्च और जलसे-जुलूस ‘गैरकानूनी’ न हो जाएं। जैसा कि ‘फार्मर्स प्रोटेस्ट 2020-21’ के दौरान देखने को मिला। 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर किसानों के भेष में अराजक तत्वों ने कानून की धज्जियां उड़ा दीं। लालकिले पर कब्जे की कोशिश की। ट्रैक्टरों पर अराजक तत्वों ने किसान आंदोलन की आड़ में राष्ट्र की मान-मर्यादा को धूल-धूसरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लालकिले की प्राचीर पर तिरंगे के साथ एक अलग पहचान का झण्डा फहराने का प्रयास किया।

जाने-माने विधि विशेषज्ञ प्रो. एमपी जैन ने अपनी किताब में लिखा है कि विरोध प्रदर्शन के अधिकार का प्रयोग इस तरह करना चाहिए कि वो अन्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण न करते हों और भावना-संवेदना को नहीं कुचलने का साधन न बन जाएं। प्रो. जैन ने लिखा है कि चूंकि विरोध व्यक्त करने का अधिकार मूल रूप से अनुच्छेद 19 से उत्पन्न हुआ है, इसलिए अनुच्छेद 19 पर ही उचित प्रतिबंध काअधिकार पर भी लागू होंगा। इसके अलावा, ‘राज्य और सार्वजनिक व्यवस्था की सुरक्षा के अधीन’ प्रतिबंध सबसे महत्वपूर्ण है।

26 जनवरी 2021 को दिल्ली के लाल किले पर हुआ हुड़दंग विरोध प्रदर्शनों की परंपरा पर काला धब्बा है। ऐसे विरोध प्रदर्शनों पर नियंत्रण के लिए को स्थानीय प्रशासन द्वारा धारा 144 लगाना, अव्यवस्थाओं और अनावश्यक बाधा और परेशानियों को रोकने के लिए लागू की जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि अनियंत्रित विरोध पर रोक लगाकर सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए सीआरपीसी की धारा 144 का उपयोग करना एक अच्छा उपाय है।

भारतीय संविधान के सिद्धांतों का न्यायशास्त्रीय आधार यह है कि प्रत्येक मौलिक अधिकार, व्यक्ति या वर्ग विशेष के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं करता अपितु समान व्यवहार करता है। भारतीय संविधान एक अधिकार को हर दूसरे विपरीत अधिकार के साथ संतुलित करता है।

शाहीन बाग प्रोटेस्ट- प्रदर्शनकारियों से पहले आम जन के अधिकार
सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने सार्वजनिक मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। जिससे प्रदर्शनकारियों के अधिकार और दैनिक राहगीरों के हितों में टकराव पैदा हो गया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों के अधिकारों के ऊपर आम जनता के अधिकारों वरीयता दी, और कहा कि अदालत ने यह भी कहा कि “लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं, लेकिन असहमति व्यक्त करने वाले प्रदर्शन केवल निर्दिष्ट स्थानों पर ही होने चाहिए…हम आवेदकों (प्रदर्शनकारियों) की इन दलीलों को स्वीकार नहीं कर सकते कि वो जब भी विरोध प्रदर्शन करना चाहें तो अनिश्चित संख्या में इकट्ठा हो जाएं।”

Leave comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *.