1952 में हुए पहले आम चुनावों में लगभग 80 लाख महिला मतदाताओं में से लगभग 2 लाख 80 हजार महिला मतदाता अपने पहचान का ब्यौरा नहीं दे सकीं थी। चुनाव आयोग को एक अनोखी मुसीबत का सामना करना पड़ा। कई महिलाओं ने परिवार के पुरुष सदस्यों के नाम पर नामांकन कराया था, जो उस समय प्रचलित सामाजिक गतिशीलता को रेखांकित करता था।
वर्तमान में यह परिदृश्य काफी हद तक बदल गया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में, रिकॉर्ड 67.18 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया, जो सामाजिक मानदंडों और जागरूकता में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है।
2009 के बाद चुनावी भागीदारी में लैंगिक अंतर को पहचानते हुए, चुनाव आयोग ने स्वीप पहल शुरू की। आदिवासी जिलों में ‘महिला मतदान रैलियाँ’ आयोजित करने से लेकर जम्मू-कश्मीर में “मदर इंडिया” अभियान शुरू करने तक, महिला मतदाताओं को शामिल करने और शिक्षित करने के अनुरूप रणनीति लागू की गईं।
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इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में, यह परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि 12 राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है, जो भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में एक मील का पत्थर है। इस बार लोकसभा चुनाव में 47 करोड़ से अधिक महिलाएँ अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं।
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