अयोध्या, वाराणसी और मथुरा… ये सभी धार्मिक स्थल उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। इन सभी के अलावा एक और ‘विवादित’ पूजा स्थल चर्चा में है, यह मध्य प्रदेश के धार में स्थित है। मुसलमान इसे कमाल मौला मस्जिद कहते हैं, हिंदू कहते हैं कि यह भोजशाला है, जो वाग्देवी (देवी सरस्वती) को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है। इस स्थल पर कभी-कभी सांप्रदायिक दंगे भड़कते रहे हैं, विवाद अदालत तक पहुंचा और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सच्चाई का पता लगाने के लिए ‘वैज्ञानिक सर्वेक्षण’ करने का काम सौंपा गया है।
मंदिर या मस्जिदधार की भोजशाला 1,000 साल पुराना मंदिर है या 700 साल पुरानी मस्जिद? यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछ रहे हैं। हिंदू जागरण मंच के इंदौर संभाग के पूर्व संयोजक राधेश्याम यादव को यकीन है कि मस्जिद बनने से पहले सदियों तक वाग्देवी मंदिर के साथ भोजशाला परिसर मौजूद था। धार के शहर काजी सादिक भी उतने ही आश्वस्त हैं कि कमाल मौला मस्जिद ‘कभी मंदिर या स्कूल नहीं रहा’ और वहां कभी कोई मूर्ति स्थापित नहीं की गई।
दोनों के पास अपने-अपने साक्ष्यदोनों पक्ष ऐतिहासिक और पुरातात्विक ‘साक्ष्य’ का हवाला देते हैं। यही कारण है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) लगभग 120 वर्षों के बाद इस स्थल का नया सर्वेक्षण कर रहा है।
‘हवन कुंड और विकृत मूर्तियां’हिंदू भोजशाला पर अपना दावा जताने के लिए यंत्र, संस्कृत और पाली शिलालेख और स्तंभों पर देवी-देवताओं की छवियों जैसी डिजाइन विशेषताओं की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें बाद में विकृत कर दिया गया। उनका कहना है कि इन ‘हिंदू विशेषताओं’ को उनके वास्तविक स्वरूप को छिपाने के लिए जानबूझकर विकृत किया गया है, उन्होंने कहा कि भोजशाला में एक बड़ा ‘हवन कुंड’ भी है जो इसकी उत्पत्ति को साबित करता है।
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मस्जिद का निर्माण करायाहिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस (HFJ) की एक याचिका में कहा गया है कि राजा भोज द्वारा 1034 ई. में निर्मित मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था और सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समय (14वीं शताब्दी की शुरुआत) में इस स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया था। वर्तमान मस्जिद 1514 ई. में सुल्तान महमूद खिलजी (द्वितीय) के शासनकाल में बनाई गई एक बाद की संरचना है।
ग्राउंड-पेनेट्रेटिंग रडार का किया जा रहा इस्तेमालएएसआई का सर्वेक्षण मस्जिद की परिधि से 50 मीटर आगे तक फैला हुआ है, कुछ घरों की दीवारों को छू रहा है। खुदाई की जरूरत वाले स्थानों की पहचान करने के लिए ग्राउंड-पेनेट्रेटिंग रडार का इस्तेमाल किया जा रहा है। भोज उत्सव समिति के समन्वयक गोपाल शर्मा, जो चल रहे सर्वेक्षण के दौरान एएसआई टीम के साथ हैं, कहते हैं कि भोजशाला के पीछे की ओर तीन स्थलों की 10 फीट तक खुदाई की गई और कई वस्तुएं मिलीं। उनकी तस्वीरें ली गईं, उन्हें बैग में रखा गया और कार्बन-डेटिंग के लिए भेजा गया।
यह मंदिर कैसे हो सकता है?वहीं, मुस्लिम पक्ष इससे अलग राय रखता है। सादिक कहते हैं कि 700 सालों से कमाल मौला मस्जिद में नमाज अदा की जाती रही है, यह मंदिर कैसे हो सकता है?’ मौलाना कमालुद्दीन वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष अब्दुल समद खान का कहना है कि असली भोजशाला मस्जिद से करीब 500 मीटर दूर राजा भोज के किले के पास है।
खंडहरों का उपयोग कर किया गया मस्जिद का निर्माणमस्जिद में मंदिर के टुकड़ों की मौजूदगी के बारे में बताते हुए मुस्लिम विद्वान नईम उल्लाह काजी कहते हैं कि इसे अन्य स्मारकों के खंडहरों का उपयोग करके बनाया गया था। अधिकांश सामग्री गुप्त-युग की इमारतों से आई थी। वे तर्क देते हैं कि इसी तरह की वास्तुकला पूरे भारत में मध्यकालीन मस्जिदों में देखी जा सकती है।
1903 में भोजशाला का नाम लोकप्रिय हुआकाजी कहते हैं कि भोजशाला का नाम तब लोकप्रिय हुआ जब धार देवास रियासत के शिक्षा आयुक्त केके लेले ने 1903 में एक पेपर में इसका इस्तेमाल किया। उन्होंने आगे कहा कि इन गलतियों को 1908 के शाही राजपत्र में सुधारा गया। क्या वे स्मारक के बारे में गलतफहमियों को दूर करने के लिए एएसआई सर्वेक्षण पर भरोसा करते हैं? सादिक कहते हैं कि हम तथ्यों और सबूतों पर विश्वास करते हैं।
यह मस्जिद ही हैउन्होंने कहा कि 1902 और 1903 में किए गए सर्वेक्षणों ने स्थापित किया कि यह एक मस्जिद थी। सर्वेक्षण के दौरान एएसआई टीम के साथ मौजूद खान कहते हैं कि हमें यकीन है कि तथ्य सामने आएंगे।
पांडुलिपियों का प्राचीन भंडारएएसआई के सर्वेक्षण से विवादित स्थल की ‘वास्तविक प्रकृति और चरित्र’ का पता चलेगा। मंदिर-मस्जिद विवाद से परे भोजशाला खगोल विज्ञान से लेकर अर्थशास्त्र, मौसम विज्ञान और साहित्य तक के विषयों पर पांडुलिपियों का एक महत्वपूर्ण भंडार था। दूर-दूर से विद्वान यहां आकर पांडुलिपियां लिखते थे। भोज शोध संस्थान के संयोजक डॉ. दीपेंद्र शर्मा कहते हैं कि भोजशाला में 500 विद्वान आराम से रह सकते थे। वे राजा भोज के साथ अपना ज्ञान साझा करते थे और उपहार के लिए पांडुलिपियों का आदान-प्रदान करते थे। अगर गहन खुदाई की जाए तो यहां एक पूर्ण विश्वविद्यालय और उसके आवासीय क्षेत्र के अवशेष मिल सकते हैं।
दशकों की खोज के बाद शर्मा कहते हैं कि हमने भोज-युग की अधिकांश पांडुलिपियों को जयपुर पोथीखाना में खोज निकाला है। इनमें से एक पांडुलिपि ऐसी है जिसमें कुष्ठ रोग का इलाज बताया गया है, जो चरक संहिता में भी नहीं मिलता।
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