Legal News: केंद्र की एनडीए सरकार, नेशनल जुडीशियल एकाउंटेबिलिटी कमीशन लागू करा पाने में तो नाकाम रही है लेकिन अब वो ऐसा कदम उठाने जा रही है कि जिससे न्यायपालिका पर सरकारी शिकंजा कस ही जाएगा।
सरकार का यह कदम ऐसा है जिसको मानना न्यायपालिका की नैतिक जिम्मेदारी है। जी हां, न्यायमंत्रालय की स्थाई संसदीय समिति ने न्यायिक अधिकारियों की चल-अचल संपत्ति का वार्षिक व्यौरा और सामाजिक स्तर का डेटा तलब किया है।
भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने न्यायपालिका से संबंधित कई और मुद्दों पर भी न्याय विभाग से प्रतिक्रिया मांगी है। दरअसल,
केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के सभी न्यायाधीशों के लिए सालाना अपनी संपत्ति की घोषणा करना अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव पर काम कर रही है और न्यायपालिका में सामाजिक विविधता का आकलन करने के लिए सभी सेवारत न्यायाधीशों से उनके वर्ग/श्रेणी से संबंधित सामाजिक स्थिति का डेटा मांगा गया है।
यह जानकारी संसद की स्थायी समिति द्वारा बुधवार 7 फरवरी को राज्यसभा को सौंपी गई कार्रवाई रिपोर्ट में सामने आई है। सरकार “जुडीशियल प्रोसीजर्स एण्ड देयर रिफॉर्म्स” विषय पर अपनी 133वीं रिपोर्ट के कार्यान्वयन पर विचार कर रही है।
भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने न्यायपालिका से संबंधित कई मुद्दों पर न्याय विभाग से प्रतिक्रिया मांगी थी, जिनमें से एक ‘मेनडेटरी डिसक्लोजर ऑफ एसेट्स’ से संबंधित था। न्यायिक मंत्रालय ने अपने जवाब में समिति को बताया कि सरकार ने न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए नियम बनाने का प्रस्ताव दिया है। 30 सदस्यीय संसदीय समिति में महेश जेठमलानी (भाजपा), विवेक तन्खा (कांग्रेस), पी विल्सन (डीएमके) और कल्याण बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस) भी शामिल हैं।
रिपोर्ट में केंद्र की प्रतिक्रिया को दोहराया गया जिसमें कहा गया था, “संसदीय स्थायी समिति द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर, यह विभाग उच्च न्यायालय न्यायाधीश अधिनियम, 1954 और सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश अधिनियम, 1958 के तहत नियम बनाने का प्रस्ताव कर रहा है ताकि एक प्रक्रिया निर्धारित की जा सके। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा उनकी प्रारंभिक नियुक्ति पर और उसके बाद हर साल नियत तारीख तक संपत्ति की घोषणा के नियमों में वैधानिक प्रावधान होगा।
हालांकि, यह अभी अंतिम नहीं है क्योंकि सरकार ने इस मामले पर अपने विचार जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री के साथ परामर्श शुरू किया है। सरकार के विचार पर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है।
समिति ने कहा, “ जब सुप्रीम कोर्ट जब यह कहता है कि जनता को सांसद या विधायक के रूप में चुनाव में खड़े लोगों की संपत्ति जानने का अधिकार है। तो यह तर्क गलत है कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति और देनदारियों का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है।
इसके अलावा, समिति का विचार था, “सार्वजनिक कार्यालय रखने वाले और सरकारी खजाने से वेतन प्राप्त करने वाले किसी भी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से अपनी संपत्ति का वार्षिक रिटर्न प्रस्तुत करना चाहिए। उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा से जनता में जुडिशियरी के प्रति विश्वास और विश्वसनीयता अधिक बढ़ जाएगी।”
वर्तमान में सरकारी तौर पर, न्यायाधीश अपनी संपत्ति घोषित करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 7 मई, 1997 को आयोजित एक पूर्ण अदालत की बैठक में “न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन” नामक एक प्रस्ताव अपनाया, जिसमें उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा पालन किए जाने वाले कुछ मानक निर्धारित किए गए थे। इस दस्तावेज़ ने मुख्य न्यायाधीशों सहित सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश के लिए नियुक्ति के समय अपनी संपत्ति/देनदारियों की घोषणा करना और प्रत्येक वर्ष की शुरुआत में इन्हें संशोधित करना अनिवार्य किया गया था।
एक दशक से भी अधिक समय के बाद, सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ (जिसमें सभी न्यायाधीश शामिल थे) ने 26 अगस्त, 2009 को अदालत की वेबसाइट पर संपत्ति का खुलासा करने का निर्णय लिया। कुछ दिनों बाद, 8 सितंबर, 2009 को पूर्ण पीठ ने फैसला किया कि घोषणा स्वैच्छिक होगी और 31 अक्टूबर, 2009 तक विवरण देने का संकल्प लिया गया।
शीर्ष अदालत की वेबसाइट में सेवानिवृत्त हो चुके 55 न्यायाधीशों की संपत्ति की जानकारी है। लेकिन किसी भी कार्यरत न्यायधीश का नाम उस सूची में शामिल नहीं है। यहां तक ति भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई चंद्रचूड़ का उल्लेख भी उस सूची में नहीं है। इस लिस्ट में आखिरी डिक्लरेशन पूर्व सीजेआई एनवी रमना का है, जिन्होंने 31 मार्च, 2018 को अपना विवरण संशोधित किया था। हालांकि कुछ उच्च न्यायालयों ने भी इसी तरह के प्रस्ताव पारित किए, लेकिन यह ज्ञात नहीं है कि कितने न्यायालयों ने इन्हें घोषित किया है क्योंकि केवल पांच न्यायालयों ने ही इसे अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित किया है।
इस स्थिति को देखते हुए संसदीय समिति ने न्याय विभाग से सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री के साथ “परामर्श प्रक्रिया को तेज़ करने” के निर्देश दिए हैं।
वैसे, यह एकमात्र मुद्दा नहीं है जहां न्याय विभाग को न्यायपालिका की प्रतिक्रिया का इंतजार है। इसके अलावा केंद्र ने सामाजिक विविधता और हाशिए पर रहने वाले समूहों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिक प्रतिनिधित्व की समिति की पिछली सिफारिश के बाद “सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में सेवारत न्यायाधीशों का वर्ग-श्रेणीवार डेटा” पर भी अभी न तो डेटा मिला और न ही कोई प्रतिक्रिया।
न्यायिक विभाग ने संसदीय समिति के सामने 31 अक्टूबर 2022 से 8 नवंबर 2023 तक के आंकड़े उपलब्ध कराए हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, 141 न्यायाधीशों में से 5 अनुसूचित जाति से, 5 अनुसूचित जनजाति से, 20 अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से, 8 अल्पसंख्यक से 22 महिलाएँ बाकी 81 अनारक्षित श्रेणी के थे। अल्पसंख्यकों में चार जैन, 2 ईसाई 1 मुस्लिम और एक पारसी थे।
समिति ने कहा कि न्यायाधीशों के संबंध में वर्ग-श्रेणी-वार डेटा वर्ष 2017 से उपलब्ध है। “वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में सेवारत शेष न्यायाधीशों के लिए, मंत्रालय द्वारा न्यायपालिका से डेटा मांगा गया है।
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