राम मंदिर के बाद देश में राम राज्य की स्थापना होना चाहिए लक्ष्य

कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे केएन गोविंदाचार्य का मानना है कि देश का लक्ष्य राम मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता। यह यात्रा राम मंदिर से रामराज्य की ओर मुड़नी है। आज जब अयोध्या में राम मंदिर बनकर तैयार है और 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है तो गोविंदाचार्य से बात करना अहम है। वह इसलिए कि भाजपा के 1989 के पालमपुर अधिवेशन के उस प्रस्ताव को तैयार करने का पूरा होमवर्क इन्होंने ही किया था, जिसमें पहली बार भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्धता दिखाई। 1990 की वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के सूत्रधार भी आप ही बने। गोविंदाचार्य ने अमर उजाला संवाददाता संतोष कुमार से राम मंदिर निर्माण और भविष्य के भारत पर विस्तार से बात की। पेश है इसके अंश…

गोविंद जी, देश का लक्ष्य सिर्फ राम मंदिर का निर्माण है या इसके आगे भी कुछ बात होनी चाहिए?
नहीं, लक्ष्य मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता। हमारा मानना रहा है कि यह यात्रा राम मंदिर से रामराज्य की ओर मुड़े। आज यह युग की पुकार है। देश भौतिक दृष्टि से भी बढ़ेगा तभी, जब देश की अपनी पहचान तासीर के अनुसार राजनीति, समाजनीति, समाज नीति व अर्थ नीति की ओर चले। पूरी दुनिया में यही हुआ है। कोई भी देश अपने स्वत्व बोध से आगे बढ़ता है। स्वत्व बोध से ही स्वाभिमान का जागरण होता है। स्वाभिमान से स्वावलंबन और आत्मविश्वास बढ़ता है। इसकी भौतिक अभिव्यक्ति समृद्धि की सीढ़ियां चढ़ना और संस्कृति की बुनियाद को मजबूत करना की प्रक्रिया सधती है। जो लोग राम के काम में लगे हैं, उम्मीदन इस दिशा में भी सोच रहे होंगे।

अवधारणा के स्तर पर शुरुआत में आप लोगों ने भी तो कुछ विमर्श किया होगा?
हुआ था ना। 1990 की कार सेवा और 1991 का चुनाव हो जाने के बाद इस दिशा में कोशिश हुई थी। इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को राम राज्य को व्याख्यायित करना था। संघ परिवार को इस दिशा में बढ़ना था लेकिन तैयारी कम रही होगी, तभी उस वक्त का सारा विमर्श छद्म धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक खांचे में सिमट गया। अभी इतिहास ने फिर से मौका दिया है। इसमें समृद्धि संस्कृति के अधिष्ठान पर हो और भारत की संस्कृति के केंद्र में है सर्वात्मैक्य का दर्शन। हम सर्वसमावेशी हों, इसके लिए भी यह दर्शन दिशा-दर्शक है। इस दर्शन के प्रकाश में संस्कृति के अधिष्ठान पर समृद्धि की साधना अभीष्ट है।

राम राज्य से आपका मतलब क्या है?
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि ब्यापा…। राम राज्य का सार्वकालिक दिशा दर्शक गोस्वामी तुलसीदास के राम चरित मानस का उत्तरकांड है। महात्मा गांधी जी ने हिंद स्वराज में राम राज्य समझा दिया है। इसी को आसान तरीके से समझने के लिए प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर भौतिक विकास को कोशिश और तकनीकी के इस्तेमाल में भारतीय संस्कृति की सामाजिकता के तकाजे, प्रकृति को अनुकूल बनाने के प्रयासों के प्राथमिकता और नैतिकता की साधना आवश्यक है।

मौजूदा वक्त में संभव है?
यही संभव है। सर्वात्मैक्य दर्शन के प्रकाश में राजनीति और अर्थ नीति को गढ़ना संभव है। नई पीढ़ी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो रही है। समाज और सत्ता दोनों इस दिशा में बढ़ने के लिए व्याकुल हैं। गहरे और व्यापक प्रयास की जरूरत है। नई राह, नए प्रतिमान गढ़ने का अवसर मिला है। संवाद और विश्वास के आधार पर राम के आदर्शों के अनुरूप राजनीति, अर्थ नीति को सर्व-समावेशक बनाने का अवसर नियति ने दिया है। उसके लिए बुनियादी जरूरत है, परस्पर विश्वास रखकर संवाद, उसके आधार पर सहमति का क्रियान्यवन और असहमति पर संवाद जारी रखना। यह इस समय पब्लिक स्पेस में पहली जरूरत है।

संभव होने का सवाल इसलिए था कि विकास के आज के व्यक्ति केंद्रित मॉडल के उलट आप प्रकृति केंद्रित विकास की बात कर रहे हैं। फिर, आज बहुत से लोग अयोध्या में चल रहे प्रयासों से कटे हैं। इसमें मुस्लिम समाज भी है और धर्म सत्ता के लोग भी?
देश का सभ्यता मूलक विमर्श प्रकृति केंद्रित विकास की दिशा में जा रहा है। जो लोग इस दिशा की उपेक्षा करेंगे, वे किनारे लगेंगे और जो अनुकूल रहेंगे, वह तर जाएंगे। इसमें प्रयास के लिए सबका स्थान है, सबके योगदान की क्षमता है। जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय, समुदाय से ऊपर उठकर सर्वात्मैक्य दर्शन के प्रकाश में, उस भाव के प्रकाश में स्वभाव व व्यवहार का परिष्कार हो, यह आज के युग का तकाजा है। राम राज्य का रास्ता इसी से खुलता है और सवाल का जो दूसरा हिस्सा है, उसमें सत्ता पक्ष को और भी सर्व समावेशक होने की जरूरत है। तनाव और संदेह समाज में कम कैसे हो, अनुराग और विश्वास बढ़े कैसे, इस तरह के प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है। यह सभी स्तरों पर आवश्यक है और भारत में धर्म सत्ता, समाज सत्ता, राजसत्ता और अर्थ सत्ता सभी को इस दिशा में आत्म परिष्कार करना होगा। अगर वह राम राज्य के विचार को साधना चाहेंगे तो इसमें राज सत्ता और धर्म सत्ता की जिम्मेदारी ज्यादा है। उनको समझना पड़ेगा कि व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से देश। व्यक्ति से बड़ा संगठन है, संगठन से बड़ा संपूर्ण समाज। पूर्णता में परिष्कार करें।
22 जनवरी को आप कैसे देख रहे हैं?
यह ऐतिहासिक प्रसंग है। भारत का जन अनुकूल है। यह संपूर्ण भारत की जनता का आयोजन है, किसी भी व्यक्ति या संगठन का नहीं। वह तो केवल निमित्त हैं। सभ्यता मूलक प्रवाह का 22 जनवरी एक नजारा है। इसके पीछे के नजरिए पर सावधानी पूर्वक ध्यान देने की जरूरत है, तभी यह नजारा दुनिया भर में देश की भूमिका तय करने में दिशा दर्शक हो सकेगा।
(अमर उजाला से साभार)

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