Yoga: आत्मोत्कर्ष” की आकांक्षा बहुत लोग करते हैं, पर उसके लिए न तो सही मार्ग जानते हैं और न उस पर चलने के लिए अभीष्ट सामर्थ्य एवम् साधन जुटा पाते हैं। दिग्भ्रांत प्रयासों का प्रतिफल क्या हो सकता है ? अंधा अंधे को कहाँ पहुँचा सकता है ? भटकाव में भ्रमित लोग लक्ष्य तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं? आज की यह सबसे बड़ी कठिनाई है कि आत्मविज्ञान का न तो सही स्वरूप स्पष्ट रह गया है और न उसका क्रिया पक्ष-साधन विधान ही निर्भ्रांत है। इस उलझन में एक सत्यान्वेषी जिज्ञासु को निराशा ही हाथ लगती है।
हमें यहाँ अध्यात्म के मौलिक सिद्धांतों को समझना होगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व में से अनगढ़ तत्त्वों को निकाल बाहर करना और उसके स्थान पर उस प्रकाश को प्रतिष्ठापित करना है, जिसके आलोक में जीवन को सच्चे अर्थों में विकसित एवं परिष्कृत बनाया जा सके। इसके लिए मान्यता और क्रिया क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रस्तुत करने पड़ते हैं। वे क्या हों, किस प्रकार हों, इस शिक्षण में थ्योरी और प्रैक्टिस के दोनों ही
वलंबन साथ-साथ लेकर चलना होता है। थ्योरी का तात्पर्य है- सद्ज्ञान, वह आस्था विश्वास जो जीवन को उच्चस्तरीय लक्ष्य की ओर बढ़ चलने के लिए सहमत कर सके। इसे आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, तत्त्वज्ञान और सद्ज्ञान के नामों से जाना-समझा जाता है । “योग” इसी को कहते हैं। ब्रह्मविद्या का तत्त्वदर्शन यही है। प्रैक्टिस का तात्पर्य है, वे साधन विधान जो हमारी क्रियाशीलता को दिशा देते हैं और बताते हैं कि जीवनयापन की रीति-नीति क्या होनी चाहिए और गतिविधियाँ किस क्रम से निर्धारित की जानी चाहिए ? साधनात्मक क्रियाकृत्यों का यह उद्देश्य समझ लिया जाए तो फिर किसी को भी न तो अनावश्यक आशा बाँधनी पड़ेगी और न अवांछनीय रूप में निराश होना पड़ेगा।
यह तथ्य हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि जीवन का परम श्रेयस्कर और शांतिदायक उत्कर्ष “आस्थाओं” के परिष्कार, “चिंतन” के निखार एवं “गतिविधियों” के सुधार पर निर्भर है। जीवन इन्हीं तीन धाराओं में प्रवाहित होता है। शक्ति के स्रोत इन्हीं में भरे पड़े हैं और अद्भुत उपलब्धियाँ उन्हीं में से उद्भूत होती हैं। इन्हें किस आधार पर सुधारा, सँभाला जाए इसकी एक विशिष्ट पद्धति है-अपने अंतरंग और बहिरंग को उच्च स्तर तक उठा ले चलना। इसे जीवन का अभिनव निर्माण एवं व्यक्तित्व का कायाकल्प भी कह सकते हैं। बोलचाल की भाषा में इसे “योगाभ्यास तपश्चर्या” कहते हैं।
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