Ayodhya Ram Mandir: भारत के कानूनी इतिहास में सबसे लंबे समय से चल रही लड़ाई में से एक 9 नवंबर 2019 को समाप्त हो चुकी है। इसके बाद वहां रामलल्ला के मंदिर का शिलान्यास हुआ और अब 22 जनवरी को अयोध्या में बने भव्य मंदिर में राम लल्ला की अप्रतिम प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है।
चलिए जानते हैं राम जन्म भूमि विवाद कहां से और कैसे शुरू हुआ और सनातनधर्मियों को अपने राम लल्ला की पूजा अधिकार हासिल करने के लिए इतना लम्बा इंतजार क्यों करना पड़ा।
यह तो सब जानते हैं कि 22 जनवरी 1526 में मुस्लिम आक्रांता बाबर के शिया मुस्लिम सेनापति मीरबाकी ने अयोध्या के भव्य राममंदिर को ध्वस्त कर बाबरी मस्जिद बनवा दी। लगभग 400 साल तक राम मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए लाखों हिंदूओं ने रक्त बहा, बलिदान दिए गए। महाराजा रणजीत सिंह ने हजारों निहंगों की फौज भेजकर अयोध्या पर कब्जा भी कर लिया था वहां निशान साहिब के साथ राम लल्ला की स्थापना भी मगर यह खुशी ज्यादा दिन टिक न सकी।
अदालत के माध्यम से अयोध्या पर सनातनियों की पहली कोशिश 134 साल पहले शुरु हुई थी। ब्रिटिश गुलामी काल से लेकर स्वतंत्र भारत में फैजाबाद की सिविल कोर्ट से इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच तक और फिर सुप्रीम कोर्ट तक, सालों-साल चली कानूनी जंग का लेखा-जोखा यहां पेश कर रहे हैं।
उपनिवेश काल में
अयोध्या विवाद में पहला दर्ज कानूनी इतिहास 1858 का है। 30 नवंबर, 1858 को मोहम्मद सलीम नामक व्यक्ति ने निहंग सिखों के एक समूह के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी, जिन्होंने बाबरी मस्जिद के अंदर अपना निशान स्थापित किया था और “राम” लिख कर एक मूर्ति के सामने हवन और पूजा भी की थी। अवध के थानेदार शीतल दुबे ने 1 दिसंबर, 1858 को अपनी रिपोर्ट में शिकायत का सत्यापन किया और यहां तक कहा कि सिखों द्वारा एक चबूतरे का निर्माण कर मूर्ति स्थापित की। यह पहला दस्तावेजी सबूत बन गया कि हिंदू न केवल बाहरी प्रांगण में बल्कि आंतरिक प्रांगण के अंदर भी मौजूद थे।
कानूनी लड़ाई 1885 में शुरू हुई, जब महंत रघुबर दास ने फैजाबाद की सिविल कोर्ट में काउंसिल में भारत के राज्य सचिव के खिलाफ मुकदमा (संख्या 61/280) दायर किया। अपने मुकदमे में महंत रघुवर दास ने दावा किया कि वह एक महंत हैं और बाहरी प्रांगण में चबूतरे पर स्थित हैं और उन्हें वहां मंदिर बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए। मगर अंग्रेज जज ने 1885 में मुक़दमा ख़ारिज कर दिया गया। 27 नवंबर 1885 के फैसले के खिलाफ एक सिविल अपील दायर की गई थी। फैजाबाद के जिला न्यायाधीश एफईआर चैमियर ने आदेश पारित करने से पहले घटनास्थल का दौरा करने का फैसला किया। बाद में उन्होंने अपील खारिज कर दी।
इस अपील की खारिजी के खिलाफ दूसरी सिविल अपील (नंबर 122) दायर की गई थी, जिसे न्यायिक आयुक्त की अदालत ने भी खारिज कर दिया था। अगले 63 वर्षों तक राम मंदिर मामले में कोई कानूनी प्रगति नहीं हुई। 1934 में अयोध्या में दंगा हुआ और हिंदुओं ने विवादित स्थल के ढांचे का एक हिस्सा गिरा दिया था। इस हिस्से का पुनर्निर्माण अंग्रेजों द्वारा किया गया था।
आजादी के बाद क्या हुआ…?
22 और 23 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि को मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के अंदर मूर्तियाँ मिलीं। तब फैजाबाद के डीएम केके नायर ने 23 दिसंबर की सुबह यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को हिंदुओं के एक समूह के उस स्थान पर प्रवेश करने और मूर्ति रखने की सूचना दी, जब यह स्थल सुनसान था। मामले में एफआईआर दर्ज की गई और उसी दिन गेट पर ताला लगा दिया गया। 29 दिसंबर को सिटी मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 145 के तहत पूरी संपत्ति कुर्क करने का आदेश पारित किया और नगर महापालिका अध्यक्ष प्रिया दत्त राम को रिसीवर नियुक्त किया। एक सप्ताह बाद, 5 जनवरी, 1950 को प्रिया दत्त राम ने रिसीवर के रूप में कार्यभार संभाला।
16 जनवरी, 1950 को हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद इस मामले में स्वतंत्र भारत में मुकदमा दायर करने वाले पहले व्यक्ति बने। गोपाल विशारद ने आंतरिक प्रांगण में प्रार्थना करने और पूजा करने के अधिकार के लिए प्रार्थना करते हुए पांच मुसलमानों, राज्य सरकार और फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट के खिलाफ मुकदमा दायर किया। मगर उसी दिन, सिविल जज ने निषेधाज्ञा का आदेश पारित किया और पूजा की अनुमति दी।
25 मई को दूसरा मुकदमा प्रमहंस रामचन्द्र दास ने जहूर अहमद और अन्य के खिलाफ दायर किया था और यह पहले मुकदमे के समान था। नौ साल बाद, 17 दिसंबर, 1959 को निर्मोही अखाड़े ने रिसीवर से प्रबंधन लेने के लिए तीसरा मुकदमा दायर किया।
दो साल बाद, 18 दिसंबर, 1961 को, सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने पहले के मुकदमों में अंकित सभी प्रतिवादियों के साथ, सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में चौथा मुकदमा दायर किया, जिसमें मूर्तियों को हटाने और मस्जिद का कब्जा सौंपने की मांग की गई।
20 मार्च, 1963 को अदालत ने कहा कि पूरे हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व कुछ व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जा सकता। इसने हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए हिंदू महासभा, आर्य समाज और सनातन धर्म सभा को प्रतिवादी के रूप में शामिल करने के लिए एक सार्वजनिक नोटिस जारी करने का आदेश दिया।
1 जुलाई, 1989 को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश देवकी नंदन अग्रवाल द्वारा राम लला विराजमान (देवता, एक छोटा कानूनी व्यक्ति माना जाता है) के “अगले दोस्त” के रूप में फैजाबाद में सिविल जज के समक्ष पांचवां मुकदमा दायर किया गया था। इसमें प्रार्थना की गई कि नए मंदिर के निर्माण के लिए पूरी जगह राम लला को सौंप दी जाए। 1989 में शिया वक्फ बोर्ड ने भी मुकदमा दायर किया और मामले में प्रतिवादी बन गया।
जनवरी 1986 में शुरु हुआ अयोध्या राम जन्मभूमि संघर्ष का नया अध्याय
25 जनवरी 1986 को, वकील उमेश चंद्र पांडे ने मुंसिफ मजिस्ट्रेट, फैजाबाद के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें कहा गया था कि रामलल्ला मंदिर के ताले खोले जाएं और श्रद्धालुओं को राम लल्ला की मूर्तियों के दर्शन-पूजन करने की अनुमति दी जाए। मुंसिफ मजिस्ट्रेट ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि मामले से संबंधित प्रकरण ऊपरी न्यायालय में लंबित है इसलिए फिल्हाल कोई आदेश पारित नहीं किया जासकता। उमेश पांडे ने मुंसिफ मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ 31 जनवरी, 1986 को फैजाबाद जिला अदालत में आदेश के अपील दाखिल की।
एक ही दिन बाद 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद के डीएम और एसपी दोनों ने कोर्ट में हलफनामा दिया कि मंदिर के ताले खुलने और रामलल्ला की पूजा होने से शांति भंग होने की आशंका नहीं है। शहर में कानून व्यवस्था बनाए रखने में कोई दिक्कत नहीं होगी। डीएम-एसपी के हलफनामे के बाद कोर्ट ने राम लल्ला के मंदिर का ताले खोलने का आदेश दिया और ताले उसी दिन ताले खोल दिये गये। यह अयोध्या विवाद में एक महत्वपूर्ण मोड़ था और इसने भारत की राजनीतिक दिशा बदल दी। ताले खुलने के बाद 6 फरवरी को मुस्लिम नेताओं की लखनऊ में बैठक हुई और जफरयाब जिलानी को संयोजक बनाकर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया और जिला अदालत के फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायलय में चैलेंज कर दिया।
12 जुलाई 1989 को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सभी मुकदमों को उच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की पीठ को स्थानांतरित करने का आदेश पारित किया।
7 और 10 अक्टूबर, 1991 को, भाजपा की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत इसे पर्यटन उद्देश्य के लिए विकसित करने के लिए आसपास के कुछ क्षेत्र (कुल 2.77 एकड़ भूमि) के साथ विवादित परिसर का अधिग्रहण कर लिया।
इस अधिग्रहण को मुसलमानों ने छह रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी थी। 11 दिसंबर को उच्च न्यायालय ने अधिग्रहण को रद्द कर दिया था। 6 दिसंबर, 1992 को सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम आदेशों के बावजूद मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया था और इस मामले में भाजपा नेताओं सहित कई लोगों के खिलाफ 49 एफआईआर दर्ज की गई थीं।
विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद
21 दिसंबर 1992 को हरि शंकर जैन ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में याचिका दायर की कि भगवान राम की पूजा करना उनका मौलिक अधिकार है। 1 जनवरी, 1993 को उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक हिंदू को उस स्थान पर पूजा करने का अधिकार है जिसे भगवान राम का जन्मस्थान माना जाता है।
हालाँकि, आगे की परेशानी को भांपते हुए, केंद्र सरकार ने 7 जनवरी, 1993 को एक अध्यादेश जारी कर अयोध्या के विवादित स्थल और उसके आसपास के क्षेत्रों सहित 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस अधिग्रहण में वो क्षेत्र भी शामिल था जो राज्य सरकार ने अधिग्रहीत किया था। साथ ही केंद्र सरकार ने यह निर्धारित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट चली कि क्या बाबरी मस्जिद के निर्माण से पहले वहां कोई मंदिर था। भारत सरकार की इस कार्यवाही पर मुस्लिम पक्ष की ओर से मोहम्मद इस्माइल फारूकी ने इसे चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ पर सुनवाई के लिए पांच न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया। 24 अक्टूबर 1994 को शीर्ष अदालत ने माना कि अधिग्रहण वैध था।
मार्च 2002 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मामला अपने हाथ में लेने के तेरह साल बाद, अयोध्या विवाद के मालिकाना हक के मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई। जुलाई 2003 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल पर खुदाई का आदेश दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने खुदाई की और 22 अगस्त 2003 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। अपनी रिपोर्ट में एएसआई ने कहा कि विवादित ढांचे के नीचे एक विशाल संरचना थी और हिंदू तीर्थयात्रा की कलाकृतियां थीं।
विवादित स्थल का बंटबारा
30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस धर्मवीर शर्मा, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस एसयू खान की तीन जजों की बेंच ने मालिकाना हक के मुकदमे में अपना फैसला सुनाया. इसने विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांट दिया और एक-एक हिस्सा राम लला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस आदेश पर कोई भी पक्ष सहमत नहीं था। अतः सभी पक्ष, राम लला विराजमान, सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की।
9 मई, 2011 को जस्टिस आफताब आलम और आरएम लोढ़ा की पीठ ने हिंदू और मुस्लिम दोनों संगठनों की अपीलों को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के 2010 के फैसले पर रोक लगा दी और पक्षों को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया।
सदियों पुराना विवाद निपटारे की ओर…
8 जनवरी, 2019 को SC ने अयोध्या में स्वामित्व मुकदमे की सुनवाई के लिए पांच न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया। दो दिन बाद जस्टिस यूयू ललित ने खुद को पांच जजों की बेंच से बचा लिया। फरवरी 2019 में, भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपने अधीन पांच न्यायाधीशों की एक नई पीठ का गठन किया, जिसमें न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति नज़ीर, न्यायमूर्ति बोबड़े और न्यायमूर्ति यूयू ललित के स्थान पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को शामिल किया गया।
पीठ ने अदालत की निगरानी में मध्यस्थता का प्रस्ताव दिया, मध्यस्थता पैनल में पूर्व एससी जज जस्टिस एफएम कलीफुल्ला, श्री श्री रविशंकर और वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू शामिल थे। मध्यस्थता 13 मार्च, 2019 को फैजाबाद के अवध विश्वविद्यालय में शुरू हुई। सात दौर की बैठकें हुईं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। आख़िरकार 2 अगस्त 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद ही मामले की सुनवाई की और 6 अगस्त 2019 से नियमित सुनवाई शुरू कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने 40 दिनों तक नियमित रूप से मामले की सुनवाई की और आखिरी 11 दिनों में पक्षों को अपनी दलीलें पूरी करने के लिए एक घंटे का अतिरिक्त समय दिया गया। 16 अक्टूबर 2019 को सभी पक्षों की बहस पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया था..!
…और 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि सभी विवाद सुलझ गए हैं…यानी विवादित स्थल अब नहीं रहा। इसलिए अयोध्या में श्री राम लल्ला जन्मभूमि मंदिर का निर्माण होना चाहिए।
1- मुगल आक्रमणकारी बाबर के सेनापति मीर बाकी ने जनवरी 1528 को श्री राम जन्म भूमि मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बाबरी मस्जिद का निर्माण किया।
2- पहली बार 1885 में महंत रघबर दास ने बाबरी मस्जिद कोर्ट परिसर में राम जन्म भूमि मंदिर बनाने के लिए फैजाबाद जिला अदालत में एक सिविल मुकदमा दायर किया, लेकिन अदालत ने मुकदमे को खारिज कर दिया।
3- आजादी के बाद, 22 और 23 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि में कुछ राम भक्तों ने राम लला की मूर्तियों को मस्जिद (मुख्य गुम्बद जिसे गर्भ गृह कहा जाता था) के अंदर रख दिया।
4- 29 दिसंबर को फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट ने विवादित भूमि को नगर पालिका फैजाबाद के साथ सम्बद्ध कर दिया। और फैजाबाद नगर महापालिका अध्यक्ष प्रियादत्त राम को रिसीवर नियुक्त किया।
5- स्वतंत्र भारत में 16 जनवरी 1950 को हिंदू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विशारद और परमहंस राम चरण दास ने फैजाबाद जिला न्यायालय में पहला सिविल मुकदमा दायर कर राम लला की त्रिकाल संध्या का अधिकार मांगा, जहां रामलाल की मूर्ति स्थापित थी।
6- 15 दिसंबर 1959 को निर्मोही अखाड़े ने मुकदमा दायर किया और विवादित स्थल पर कब्ज़ा मांगा।
7- 18 दिसंबर 1961 को यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने विवादित स्थल से राम लाल की मूर्तियों को हटाने के लिए मुकदमा दायर किया।
8- 25 जनवरी 1986 को वकील यूसी पांडे ने पूजा के लिए राम लला मंदिर का ताला खोलने के लिए एक आवेदन दायर किया।
9- डीएम और एसपी फैजाबाद की सिफारिश पर जिला न्यायाधीश फैजाबाद ने 1 फरवरी 1986 को रामलला की पूजा का ताला खोलने का आदेश दिया।
10- बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली। लेकिन बिहार के तत्कालीन सीएम लालू यादव ने 30 अक्टूबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया और रथ यात्रा धराशायी हो गई।
11- दो साल और लगभग 2 महीने बाद 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों की भारी भीड़ ने विवादित स्थल को ध्वस्त कर दिया, जिससे 2000 से अधिक निहत्थे कारसेवकों की मौत हो गई।
12- 21 दिसंबर 1992 को अधिवक्ता हरि शंकर जैन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में रामलला की पूजा को मौलिक अधिकार बताते हुए राम लल्ला की पूजा की अनुमति देने की याचिका दायर की।
13- 1 जनवरी 1993 को हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने कहा कि हर हिंदू को रामलला के स्थापित स्थान पर पूजा करने का अधिकार है। हिंदुओं में हर्ष की लहर दौड़ गई…लेकिन
14- 7 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने एक अध्यादेश लाकर विवादित स्थल सहित आसपास की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया।
15- 24 अक्टूबर, 1994 को सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सरकार की कार्रवाई सही थी।
16- मार्च 2002 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादि मामले के स्वामित्व (टाइटिल सूट) यानी अयोध्या की विवादित भूमि के मालिकाना हक के मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई।
17- जुलाई 2003 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित स्थल पर खुदाई का आदेश दिया।
18- 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने अपने फैसले में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांट दिया। एक रामलला के लिए, दूसरा निर्मोही अखाड़े के लिए और तीसरा मुसलमानों के लिए। लेकिन तीनों पार्टियों ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
19- 8 जनवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल के स्वामित्व मुकदमे की सुनवाई के लिए पांच न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया।
20- सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावित कोर्ट की निगरानी में मध्यस्थता की। जब यह फेल हो गया. 2 अगस्त 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने 51 दिन की नियमित सुनवाई शुरू की.
21- 16 अक्टूबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
22- 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि अब कुछ भी विवादित नहीं है इसलिए अयोध्या स्थल पर राम लला मंदिर का निर्माण किया जाए।
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