Collegium vs NJAC (कॉलेजियम बनाम एनजेएसी): आज से ठीक एक साल पहले… न्यायिक नियुक्तियों के मामले पर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच चल रही तीखी बहस में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का भी बड़ा बयान आया था।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) और 99वें संशोधन को रद्द करने वाले शीर्ष अदालत के 2015 के फैसले का जिक्र करते हुए पूछा था कि ‘न्यायपालिका सर्वसम्मति से पारित संवैधानिक प्रावधान को कैसे रद्द कर सकती है जो “लोगों की इच्छा” को प्रतिबिंबित करता है।’ यह वही समय था जब तत्कालीन लॉ मिनिस्टर किरेन रिजीजू ने कहा था कि एनजेएसी ही दशकों पुरानी कॉलेजिएम सिस्टम का पारदर्शी विकल्प दे सकता है।
हायर जुडिशियरी में नियुक्तियों को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में नोंक-झोंक लगातार चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस मामले पर सुनवाई भी और सरकार को चेतावनियां भी दी हैं। अब सवाल यह उठता है कि साल भर अचानक यह मामला फिर सुर्खियों में क्यों आया?
इस कहानी का पहला सोपान संविधान दिवस पर सुप्रीम कोर्ट में आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संबोधन से शुरू होता है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना की बात कही। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में नियुक्ति ‘योग्यता आधारित’ होनी चाहिए और पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता आवश्यक है।
इस कहानी का दूसरा सोपान गुजरात के कांग्रेस सांसद शक्ति गोहिल के सदन में पूछे गए एक सवाल है। शक्ति गोहिल के सवाल के जवाब में मौजूदा कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट से आई सिफारिशों पर लगातार नियुक्तियां कर रही है। कुछ औपचारिकताओं को पूरा करने में समय लग रहा है, इसलिए कुछ सिफारिशें लंबित भी हैं। अर्जुन राम मेघवाल ने भी सही मौका देखकर कहा कि जजों की नियुक्ति में देरी न हो और पारदर्शिता बनी रहे इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश में एमओपी बन रहा है। जैसे ही एमओपी तैयार हो जाएगा तो यह देर भी नहीं लगेगी। कहने का मतलब यह कि अर्जुन राम मेघवाल ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में होने वाली देरी के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर सुप्रीम कोर्ट को ही जिम्मेदार ठहरा दिया।
कहानी का तीसरा सोपान, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के मुंबई में एक दिए बयान है। केट यानी केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की मुंबई पीठ के उद्घाटन समारोह में सीजेआई ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में सरकार के साथ गतिरोध लगातार बना हुआ है लेकिन संबोधन में सीजेआई चंद्रचूड़ ने एमओपी के बारे में कोई जिक्र नहीं किया। इससे पहले एक अन्य कार्यक्रम में सीजेआई चंद्रचूड़ ने कॉलेजियम की सराहना करते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति से पहले उनकी आचरण, व्यवहार और कार्यकुशलता के अलावा उनकी योग्यता-अहर्यता को परखता है। इसके लिए एक पूरा सिस्टम काम कर रहा है। सीजेआई चंद्रचूड़ को सियासी हलकों में यह संदेश गया कि उच्च न्यायपालिका एमओपी को लेकर किसी जल्दबाजी में नहीं है।
चलिए अब जानते हैं कि एनजेएसी क्या था? यह कॉलेजियम प्रणाली से कैसे और कितना अलग है मौजूदा कहानी की बैकग्राउंड क्या है?
अगस्त 2014 में, संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम, 2014 के साथ संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 पारित किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र आयोग के निर्माण का प्रावधान किया गया था। दोनों विधेयकों को आवश्यक संख्या में राज्य विधानमंडलों द्वारा अनुमोदित किया गया और 31 दिसंबर 2014 को राष्ट्रपति की सहमति मिल गई।
संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 देश के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित हैं। अनुच्छेद 124(2) में कहा गया है कि “सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा” सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के साथ “परामर्श” के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी”। जबकि कॉलेजियम प्रणाली स्वयं संविधान का हिस्सा नहीं है। इसका कानूनी आधार उच्च न्यायपालिका के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसलों को माना गया है।
एनजेएसी अधिनियम ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आयोग द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की सिफारिश एनजेएसी द्वारा वरिष्ठता के आधार पर की जानी थी, जबकि सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की सिफारिश क्षमता, योग्यता और “नियमों में निर्दिष्ट अन्य मानदंडों” के आधार पर की जानी थी। अधिनियम एनजेएसी के किन्हीं दो सदस्यों को किसी सिफ़ारिश से सहमत नहीं होने पर वीटो करने का अधिकार देता था।
दूसरी ओर, कॉलेजियम प्रणाली में, वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक समूह उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियाँ करता है। यह प्रणाली लगभग तीन दशकों से कार्यरत है।
इससे पहले, न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अन्य न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती थी। कॉलेजियम प्रणाली का जन्म न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच वर्षों के टकराव से हुआ था। ये घटनाएं क्रमशः 1970 के दशक में कोर्ट-पैकिंग (एक अदालत में न्यायाधीशों की संरचना को बदलने की प्रथा), उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बड़े पैमाने पर स्थानांतरण और सीजेआई को सुपरसीड करने वाली थीं।
बहरहाल, न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा लाए एनजेएसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट सीधे नहीं आई। बल्कि सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने एनजेएसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी। हालांकि, एनजेएसी विधेयक के कानून बनने और 99वें संशोधन के अनुमोदित होने से पहले ही, कई याचिकाकर्ताओं ने विधेयकों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए 2014 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन न्यायालय ने यह कहते हुए दलीलों को स्वीकार नहीं किया कि चल रही विधायी प्रक्रिया को बाधित करना हो सकता था।
2015 की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (एससीएओआरए) ने एनजेएसी के प्रावधानों को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की और एनजेएसी न्यायालय ने खारिज कर दिया।
SCAORA ने तर्क दिया एनजेएसी से “भारत के मुख्य न्यायाधीश और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक राय की प्रधानता” छिन जाती है क्योंकि उनकी सामूहिक सिफारिश को वीटो किया जा सकता था या ‘तीन गैर-न्यायाधीश सदस्यों के बहुमत से न्यायधीशों की राय को निलंबित किया जा सकता था।’ SCAORA ने यह तर्क भी दिया कि एनजेएसी से संविधान की मूल संरचना को “गंभीर रूप से” नुकसान पहुंचता है, क्यों कि यह उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वतंत्रता भंग करता है।
हालांकि, SCAORA की याचिका पर एनजेएसी को खारिज करते समय सुप्रीमकोर्ट ने ही सरकार से कहा था कि वो भारत के मुख्य न्यायाधीष और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए ‘नया नियुक्ति प्रक्रिया ज्ञापन’ (एमओपी) लेकर आए। क्योंकि पहला एमओपी 1947 में जारी किया गया था और 1999 में रिन्यू किया गया था। साल 1999 के बाद से एमओपी में कोई संशोधन नहीं हुआ है। एमओपी में संशोधन को लेकर भी सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी बनी रही फिर भी 2017 में एमओपी को अंतिम रूप दे दिया गया लेकिन इसे अपनाया नहीं गया। इसके बाद सरकार ने कहा था कि वो अब सुप्रीम कोर्ट के परामर्श से नया एमओपी लेकर आएगी। तब से लेकर आज तक एमओपी सरकार और न्यायपालिका के बीच झूल रहा है।
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