अहंकार के रूपांतरण और सहजता के सायुज्य का प्रतीक है वसंत पंचमी का त्रिवेणी अमृत स्नान
आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री
अधिष्ठाता,
श्री पीतांबरा विद्यापीठ सीकरीतीर्थ
अखिल भारतीय अध्यक्ष,
राष्ट्रीय ज्योतिष परिषद
वसंत ऋतु की माघ शुक्लवपंचमी का वैदिक और पौराणिक महत्व है।
ऋतुओं की चार संधियों में से एक माघ संधि में गुप्त नवरात्रों का विशेष दिन है वसंत पंचमी
यह ऋतु परिवर्तन का काल है…ऊर्जाओं से रक्त तक नवीनता का संचार होता है….प्रकृति से पुरुष तक सब उल्लास में होते हैं।
भारत पर्वों का देश है…यहां सनातन संस्कृति पल पल आनंद में उल्लसित रहती है…जिससे सकारात्मक ऊर्जाएं मानव को सर्व कल्याण की भावनाओं में संलग्न रखती हैं। वैदिक शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के जीवन में चार अवस्थाएं आती हैं। जिन्हें आश्रम भी कहा गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास…संन्यास अंतिम आश्रम है और यह जीवन भर किए गए कार्यों के प्रति सिंहावलोकन करके ईश्वर की शरण में जाना है…
संन्यास का शाब्दिक अर्थ है, सबको बराबर देखना…सबके लिए समान भाव रखना, सबके लिए समान रहना…जो सहज होने पर ही संभव है। तभी वास्तविक संन्यास अन्तस में घटता है। इसलिए संन्यासी को प्रतिक्षण सहज रहने के लिए परम ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो मां सरस्वती की कृपा के बिना संभव नहीं है….
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था कि वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (10/22) अर्थात् वेदों में मैं सामवेद हूँ….सामवेद गायन किए जाने वाला वेद है, जिसे बिना सारस्वत उपासना के नहीं समझा जा सकता है और न ही छंदशास्त्र को समझे गाया जा सकता है। वेदों की ऋचाओं में ध्वनि का आरोह अवरोह होता है, जिसे जानने के लिए मां सरस्वती की कृपा अत्यंत आवश्यक होती है।
वसंत पंचमी को ज्ञान की देवी सरस्वती का प्राकट्य माना जाता है। सरस्वती के प्रगट होने पर देवताओं ने उनकी स्तुति की…वेदों की ऋचाएं प्रगट हुईं और छंद शास्त्र का उदय हुआ…वीणा की मधुर ध्वनि से राग उपजे….राग वसंत इसी दिन आरम्भ हुआ….मां सरस्वती के प्राकट्य के बाद उनकी वीणा से निकले संगीत से प्रकृति झंकृत होती है और उमंगों, तरंगों से झिलमिलाने लगती है। पुष्प खिलने लगते हैं, वनस्पतियां नया रूप धारण करने लगती हैं, ज्ञान का उत्कर्ष होता है और आनंद का उत्सव मनता है…यह ऋतुराज वसंत के आगमन का सूचक होता है….
कालिदास ने उसे बहुत सुंदर शब्दों में कहा है –
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषाः दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रियं चारुतरं वसन्ते।।
अर्थात् वसंत ऋतु में वृक्ष पुष्पों से शोभायमान हो जाते हैं और तडाग और झीलों में कमल खिलने लगते हैं। स्त्रियां कामना से युक्त हो जाती हैं और वायुमंडल में सुगंध बहने लगती है। सूर्योदय और सूर्यास्त मनोहर लगते हैं। दिन बहुत अच्छा बीतता है। क्योंकि सुंदरता, सुगंध, और सुख का अनुभव होता है। इसीलिए वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। हर ओर हरितिमा और पीले पुष्पों देखकर मन प्रसन्न रहता है।
स्नान क्या है!
प्रकृति के आनंद काल में ज्ञान की उत्पत्ति होती है…मां सरस्वती की विशेष कृपा होती है, पाप नष्ट होते हैं और मन तप के लिए उद्यत होता है….उसी की पूर्ति के लिए मनुष्यमात्र, जिसमें चारों आश्रम और सभी वर्ण जातियां एक होकर, शुद्ध होकर उस ज्ञान, कला और संगीत की देवी की उपासना करते हैं, जिससे ज्ञान प्राप्त करके अपने कर्तव्यो का पालन करते हुए मुक्ति का मार्ग पा सकें। स्नान उसी मार्ग पर चलने का पहला चरण है…..!
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था – अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति…मनः सत्येन शुध्यति…. अर्थात् जल से शरीर की शुद्धि होती है और सत्य से मन की…बिना दोनों की शुद्धि के ज्ञान और सहजता एक साथ न रह सकेंगे…क्योंकि ज्ञान का अहंकार सहजता को नष्ट कर देगा, इसलिए ज्ञान की देवी के शरणागत होने से ही अहंकार रूपांतरित होकर सहजता में अंतर्निहित हो जाता है।
संगम पर ही स्नान क्यों महत्वपूर्ण है!
ऋग्वेद के आठवें मंडल इस पर बहुत गहन अर्थ की ऋचा है –
उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्। धियो विप्रो अजायत।।
अर्थात् पर्वतों की गुहाओं में और नदियों के संगम पर मनुष्य की मेधा जाग्रत होती है…उसकी सकारात्मक ऊर्जा चेतना से संवाद करने लगती है और वह ज्ञान को प्राप्त होता है…।
सनातन संस्कृति वेदों की संस्कृति है। वेदों का कथन पूर्ण सत्य होता है। इसलिए स्वस्थ मनोमस्तिष्क की प्राप्ति और ज्ञानवर्धन के लिए त्रिवेणी स्नान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
साधु संतों को प्रथम स्नान क्यों!
क्योंकि सनातन में संन्यास का सर्वोच्च सम्मान होता है, इसलिए तीर्थस्नान में भी उसी को प्राथमिकता दी जाती है। इसलिए साधु संन्यासी अमृत स्नान करते हैं। उनके पवित्र तप से जल भी विशेष सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है और उस जल में विशेष दैवीय गुणों का प्रभाव बढ़ जाता है। इसलिए तपस्वी संत पहले स्नान करते हैं और जन सामान्य उनके बाद स्नान करते हैं।
वास्तव में यह अमृत स्नान है। क्योंकि कुंभ पर्व का अमृत से महत्वपूर्ण जुड़ाव है। मुगल काल में इसका नाम शाही स्नान पड़ गया था तो यही शब्द प्रचलित हो गया।
त्रिवेणी का महत्व!
नदियों के संगम पर प्रवाहित विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए वैदिक काल से ही प्रयाग स्नान करने के उल्लेख शास्त्रों में मिलते हैं। जहां पवित्र जल की तीन धाराएं एकसाथ मिलती हैं, वह स्थान प्रयाग कहलाता है। भारत में नदियों के संगम पर अनेक प्रयाग स्थित हैं। जैसे उत्तराखंड में पंच प्रयाग देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग, तथा विष्णुप्रयाग मुख्य नदियों के संगम पर स्थित हैं। गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को प्रयागराज कहा गया। यह तीर्थराज प्रयाग सनातन के विशेष पर्व कुंभ के लिए जाना जाता है।
© आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री
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