राष्ट्र और धर्म की रक्षा हेतु मनसा वाचा कर्मणा सत्य का पक्ष लेना होगा

Nation भगवद्गीता कहती है, ‘लड़ो, शत्रु को नष्ट कर दो।’

सत्य के लिए पक्ष लेना होगा, उन शक्तियों के विरुद्ध खड़े होना होगा, जो उस पर आक्रमण करती हैं और उसका गला घोंटना चाहती हैं।

घृणा और कोसना सही प्रवृत्तियां नहीं हैं। यह भी सच है कि सभी वस्तुओं और लोगों को एक शांत एवं निर्मल दृष्टि से देखना, अपने निर्णयों में निर्लिप्त और निष्पक्ष बने रहना बिल्कुल योगी प्रवृत्ति है। इससे पूर्ण समता की स्थिति स्थापित की जा सकती है, जिसमें व्यक्ति सभी को, मित्रों और सत्रुओं समेत, एक बराबर जैसा देखता है, और जो कुछ लोग कहते व करते हैं अथवा जो कुछ होता है, उससे वह घबराता नहीं है।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या हमसे इसी सब की अपेक्षा की जाती है? यदि ऐसा है, तब तो प्रत्येक वस्तु के लिए सामान्य प्रवृत्ति निष्पक्ष उदासीनता की ही होगी।

किंतु गीता, जो पूर्ण और असीम समता पर दृढ़तापूर्वक जोर देती है, आगे कहती है, ‘लड़ो, शत्रु को नष्ट कर दो, जीतो।’

यदि किसी तरह का सामान्य कर्म नहीं चाहिए; किसी की व्यक्तिगत साधना के अतिरिक्त मिथ्यात्व के विपरीत सत्य के प्रति कोई निष्ठा नहीं है; सत्य की विजय का कोई संकल्प नहीं है, तब तो उदासीनता वाली समता पर्याप्त होगी।

पर यहां तो “एक काम करना” आवश्यक है, राष्ट्र (Nation) में एक सनातन सत्य को स्थापित करना है, जिसके विरुद्ध असीम शक्तियां कतार बांधे खड़ी हैं; ऐसी अदृश्य शक्तियां, जो प्रत्यक्ष वस्तुओं, व्यक्तियों और कर्मों को अपना उपकरण बनाकर प्रयुक्त कर सकती हैं।

इसलिए यदि कोई शिष्यों में से है, इस सत्य की खोजने वालों में से है, तो उसे सत्य के लिए पक्ष लेना होगा, उन शक्तियों के विरुद्ध उसे खड़े होना होगा, जो उस पर आक्रमण करती हैं और उसका गला घोंटना चाहती हैं।

महाभारत के युद्ध में अर्जुन इस या उस (पांडव या कौरव) किसी पक्ष के लिए खड़ा नहीं होना चाहता था। वह आक्रमणकारियों के विरुद्ध भी युद्ध संबंधी कोई कर्म करने से इनकार कर रहा था, तब श्रीकृष्ण ने, जो समता पर इतना जोर दे रहे थे, अर्जुन की इस प्रवृत्ति पर उसे जोर से फटकारा और उतने ही जोर से उसके सामने प्रस्तुत शत्रु से लड़ने पर बल दिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘समता रखो और सत्य को स्पष्ट रूप से देखते हुए लड़ो।

इसलिए सत्य का पक्ष लेना और आक्रमण करने वाले मिच्यात्व को कोई छूट देने से इनकार करना, अटल रूप से निष्ठावान और शत्रुओं व आक्रमणकारियों के विरुद्ध होना समता से असंगत नहीं है।

यह एक आध्यात्मिक लड़ाई है, आंतरिक और बाह्यः निष्पक्षता और समझौता या सहिष्णुता से भी व्यक्ति शत्रु-शक्ति को जाने और सत्य तथा उसकी संतति को कुचल डालने की अनुमति दे सकता है।

तुम उसे इस दृष्टिकोण से देखो, तो तुम्हें दिखलाई पड़ेगा कि यदि आंतरिक आध्यात्मिक समता सही है, तो सक्रिय निष्ठा और दृढ़तापूर्वक पक्ष लेना भी सही है, और ये दोनों असंगत नहीं हो सकते।

 

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